शब्द प्रकाश भजन- ११३(कजरी), संतों गगन घटा घहरावै…, Vihangam Yoga 🧘‍♀️



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भाष्य-इस पद में ग्रन्यकार श्री स्वामी जी ने कृषि के रूपक द्वारा अध्यात्म की ऊँचाई और साधना का वर्णन किया है। कृषक का हृदय प्रसन्नता से झूम उठता है, जब वह आकाश में बादलों की उमड़ कर जल की वर्षा करते देखता है। उसी प्रकार साधक के चिदाकाश में जब मेघ गर्जन का शब्द सुनाई पड़ता है और सोमरस की दृष्टि होने लगती है, तब उसका हृदय प्रफुल्लित हो जाता है। खेती के कार्य में दो बैलों की आवश्यकता होती है। खेतों में दूब, घास, खर-पतवार की निकाई करनी पड़ती है। धान, गेहूं आदि अन्नों को खेतों में बोना पड़ता है। धैर्यपूर्वक उसकी समय-समय से सिंचाई, गौड़ाई तथा पशु-पक्षी, कौयादिको से रक्षा करनी पड़ती है। तब फसल के परिपक्व हो जाने पर उसे काटकर अत्र घर लाया जाता है, जिससे भोजन तैयार कर बुधा की निवृत्ति की जाती है।

यहाँ अध्यात्म विद्या के साधकों को अपनी सुरति और निरति हो बैल के रूप में अहनिशि प्रभु के चेतन लोक में जोत कर रखना पड़ता है। हृदय से दुनिया भ्रम को हटाना पड़ता है। परमात्मा रूपी अन्न को ही बोना पड़ता है। आत्मा की चेतना को सदैव जागृत रखकर परमात्मा में लगाए रखना पड़ता है। तत्पश्चात् प्रभु से अमृत रस का भौन्य पदार्थ प्राप्त होता है, जो विविध प्रकार के स्वादिष्ट पकवानों से भी अत्यन्त सुस्वादु होता है। श्री सद्गुरु सदाफल देव जी महाराज कहते हैं कि इस प्रकार की आध्यात्मिक कृषि परमानन्द को प्रदान करती है और युग-युग से हुया पीड़ित आत्मा इस सोमरस का पान कर परमानन्द का अनुभव करता है।

शरीर को बलिष्ट रखने के लिये और शारीरिक विकास के लिये अन्न जल ग्रहण करना पड़ता है और आत्मा को बतिष्ट बनाने के लिये प्रभु से प्रवाहित अमृत का पान करना पड़ता है। आत्मा का भोजन अमृत है। उसे ही पाकर आत्मा की जन्म-जन्मान्तर की भूख मिटती है। जतः सद्गुरु शरण में जाकर इस अमृत का पान करना सभी मानवमात्र के लिए आवश्यक है।